The Third 'I' - ज़माने की तीसरी आँख - Hindi Article - Rahulrahi.com - Lafzghar

Breaking

BANNER 728X90

Monday, April 10, 2017

The Third 'I' - ज़माने की तीसरी आँख - Hindi Article - Rahulrahi.com

Madhuri Sarode's first sale

बचपन में जब टेलीविज़न पर किसी हिन्दू धार्मिक धारावाहिक का प्रसारण होता तो एक बड़े ही विशेष देव "महादेव" अर्थात शंकर भगवान् का और उनकी तीसरी आँख का चित्रण हो आता। हर किसी को यह पता था कि वह प्रलय की आँख है। वो खुली कि दुनिया का विनाश पक्का। मैं छोटा था, तो बड़ों का विश्वास कर लिया। उसका डर मेरे अंदर भी घर कर गया कि शंकर भगवान् से दुश्मनी बड़ी महँगी पड़ेगी, मेरी वजह से बिना बात के यह दुनिया मारी जाए यह ठीक नहीं।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। जैसे - जैसे मैं बड़ा हुआ, इस विषय पर अध्ययन किया, तब मैंने पाया कि यह तीसरी आँख सभी में सुप्त अवस्था में होती है, जिसे ध्यानयोग से जगाया जा सकता है, जो हमारी अन्तः प्रज्ञा (intution) को जगाती है। व्यक्तिगत तौर पर तो यह बड़ा रोचक और लाभकारी है। लेकिन मुझे लगता है की हमारे ज़माने की तीसरी आँख आज भी सुप्त अवस्था में है और जो दो आँखें जागृत भी है, वह उसपर ध्यान नहीं दे रही।

Delicious pizza in process
आप ज़रूर सोचेंगे कि यह ज़माने की तीसरी आँख है क्या? पहले बता दूँ कि वो दो आँखें कौन हैं? अजी हम ही हैं वो दो आँखें, स्त्री व् पुरुष, आदमी और औरत, मेन एन्ड वुमेन। तो फिर यह तीसरी आँख कौन? यह है तृतीयपंथ। जिन्हें हम कई नामों से जानते हैं, किन्नर, हिजड़ा, ब्रिहन्नड़ा इत्यादि। किन्नरों के बारे में मैं आपसे यहाँ कोई जानकारी साझा नहीं करूँगा, क्योंकि मुझे यकीन है कि मोबाईल स्मार्टफोन व इंटरनेट चलाने वाला हर व्यक्ति किन्नर शब्द व व्यक्ति विशेष से परिचित होगा। लेकिन आज भी किन्नर हमारे समाज की आम धारा से ज़रा परे ही है। उन्हें देखकर हम आज भी अपना मुँह फेर लेते हैं, अपना रास्ता बदल लेते हैं, आखिर ऐसा क्यूँ है? पूछने पर पता चला - “डर”। और इस डर की वजह है, हमारी उनसे दूरी और अज्ञानता। सदियों के अंतराल में एक बड़ी खाई किन्नरों व स्त्री/पुरुष (समाज) के बीच बन गई।


Shabnam from showing mehendi skill
इसी खाई को भरने के लिए मुंबई के बांद्रा स्थित सेंट स्टेनिस्लॉस हाई स्कूल के मैदान में ८ व ९ अप्रैल को एक अनोखे मेले का आयोजन ‘अनाम प्रेम’ परिवार द्वारा किया गया। इस मेले का मुख्य उद्देश्य भारत के कई राज्यों से आए तृतीय पंथियों को अपनी कला व हुनर प्रदर्शित करने का मौक़ा देना था, जिससे उनमे लोगों के सामने हाथ फैलाने की अपेक्षा अपने व्यक्तित्व को सँवारने और स्वाभिमान से जीने की उम्मीद जगे। “ट्राँस एंड हिजड़ा एम्पॉवरमेंट मेला” नाम के इस मेले में रंगों की छटा तो थी ही, किस्म - किस्म के विभिन्न स्टॉल (खान पान, मेहंदी, कपडे, गहने, बाँस के उत्पाद, गृह सजावट का सामन) के साथ मधुर शास्त्रीय संगीत व रंगारंग नृत्य का भी आयोजन था, और यह सभी विधाएँ मुख्यतः किन्नरों द्वारा ही प्रस्तुत की गई।

गुजरात - वड़ोदरा से रंग - बिरंगे परिधान ले आईं किन्नर उर्वशी ने कहा, “पहले तो मुझे ज़रा घबराहट थी कि क्या होगा, कौन लोग हैं, शायद किसी प्रकार की जागरूकता का कार्यक्रम होगा, लेकिन यहाँ सभी लोगों से मिलने के बाद साड़ी परेशानी दूर हो गई और साथ ही दोनों ही दिन मुझे लोगों का बहुत ही अच्छा रेस्पोंस (प्रतिसाद) मिला। “बहुत ख़ुशी हुई यहाँ काम कर के। दुःख इस बात का है कि सिर्फ दो दिन ही इस मेले का आयोजन किया गया।” , यह कहना था करीमा का जिन्होंने मेकअप का स्टाल लगा रखा था, लोगों के जोश का अंदाजा उनके स्टॉल के बाहर लगी लाइन को देखकर सहज ही लगाया जा सकता था।

मुंबई की किन्नर माधुरी सरोदे अपने हाथों से बनें गहनों के और आँखों में चमक लिए गर्मजोशी से ग्राहकों का अभिवादन कर रही थी। उनकी उपलब्धि उनके गहनों के आलावा उनके पति जय कुमार थे, जो कंधे से कन्धा मिलाकर उनके साथ खड़े थे। इंदौर से आए स्वप्निल के स्टॉल का मुख्य आकर्षण “ड्रीम केचर” (dream catcher) था, जिसे काफी लोगों ने पसंद किया। उन्हें इसकी उम्मीद बिलकुल नहीं थी कि लोग इसे इतना पसंद करेंगे। पेशे से क्रिमिनोलॉजिस्ट स्नेहिल, जिन्हें सारे स्टॉल का विश्लेषण कर सबसे बेहतरीन ३ को इनाम देना था, उन्होंने कहा, “इन सभी में वार्तालाप की दक्षता, कमाल की कारीगरी, मेहनत व लगन कूट-कूटकर भरी है। अगर इन्हें मौक़ा दिया जाए तो ये सभी अपने व समाज के लिए बेहतर रोज़गार खड़ा सकते हैं।”



ऐसे कई आदर्श उदाहरण इस मेले में मौजूद थे, जो अपने में ही चमक लिए दमक रहे थे। जिन्हें बस दरकार है एक हाथ की, एक साथ की, जो सिर्फ उनके साथ हो लें। हमें बस उनके अस्तित्व को स्वीकार करना है, जिसे उसी प्रकृति, उसी परम ने गढ़ा है, जिससे हम जन्में हैं। चाहे शिव के त्रिनेत्र की बात हो या हमारे समाज के इस तीसरे पंथ की, हमारा अन्धकार में रहना, उनके पास ना जाना, उन्हें ना समझना ही हमारी भूल है। इसमें उनका कोई कसूर नहीं। समाज एक दिन में नहीं बदलेगा, लेकिन कोई इमारत एक दिन में नहीं बनती, कोई वृक्ष एक दिन में फल नहीं देता। ध्यानयोग में तीसरी आँख भी तब खुलती है जब बाकी दो आँखें भीतर देखना शुरू करती है। हमें भी ज़रूरत है अपने मन में झाँक कर अज्ञानता के अन्धकार को दूर करने की। इस ज़माने की तीसरी आँख जागने के लिए तत्पर है, सहयोग दें।

1 comment: