अमर जवान ज्योति
तप रहा है भूमि का,
सीना लहू की बूँद से,
डर भी डर से काँपता,
रहता है आँखें मूँद के ।
रोष है, आक्रोश है वो,
होश में तैयार है,
और वरूण से तेज़ उसका,
दुश्मनों पे वार है ।
थर्र थर्रात है हिमालय,
जिसके पग की चाप से,
हिम पिघलता है बराबर,
उसके बल के ताप से ।
नाप ली एक गोते में,
सागर की सब गहराइयाँ,
फीकी पड़ जाती है नभ की,
अनछुई ऊँचाइयाँ ।
वीरता है आत्मा,
क़ुर्बानी जिसकी शान है,
वो अमर जवान ज्योति,
वो अमर जवान ज्योति ।
Amazing...
ReplyDeleteहौसला देती है ये कविता
ReplyDeleteमंजिल हमारे साथ है !
Your poems just make go crazy....
ReplyDeleteVery nice poem
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