Do dhadkanon ke beech - rahulrahi.com |
कोई नहीं जान पाया, ना मानव खुद और ना ही रौशनी, लेकिन कुछ तो हुआ था, जो अनकहा सा रह गया, लगभग मृत सा रह गया था वो, जब उसकी साँस ठहरी दो धड़कन के बीच।
लोधी गार्डन से निकलकर मानव कालकाजी मंदिर मेट्रो स्टेशन की ओर चल पड़ा। दिल्ली में मेट्रो सेवा कई रंगों में विभाजित थे, जैसे कि रेड लाइन, ब्लू लाइन, येलो लाइन इत्यादि। कालकाजी मंदिर मेट्रो स्टेशन वायलेट लाइन पर स्थित था। मानव ने पहले जोरबाग़ से ली और वहाँ से सेन्ट्रल सेक्रेट्रिएट और फिर कालकाजी मंदिर तक उसे जाना था। यह सफ़र ब्लू लाइन और वायलेट लाइन दोनों से मिला जुला था। रविवार का दिन, काम भीड़ और मेट्रो का सफर काफ़ी सुहाना था। डूबता सूरज मेट्रो ट्रेन की बंद काँचवाली खिड़की से अपनी सुनहरी धमक लोगों पर बिखेर रहा था। हर कोई अपने में और मानव डूबते सूरज में गुम था, “अगला स्टेशन कालकाजी मंदिर, दरवाजें बाईं ओर खुलेंगे।” मेट्रो की इस यंत्रवत आवाज़ ने मानव का ध्यान भंग किया। तेज़ी से चलती ट्रेन अपने गंतव्य पर पहुँच गई। स्टेशन पर उतरकर उसने आसपास नज़र दौड़ाई लेकिन रौशनी का अतापता कहीं नहीं था। हाँ उसने २.३० बजे ही मेसेज कर दिया था कि वह निकल चुकी है, और साथ ही हिदायत थी वक्त पर आने की। ‘अबतक तो उसे पहुँच जाना चाहिए था, लेकिन वो आई नहीं। पहुँची होती तो फोन कर देती ’ इतना सोचते हुए उसने अपना फोन देखा। “कमबख्त फोन को भी अभी आउट ऑफ़ नेटवर्क जाना था।” ४ बजकर २० मिनट हो चुके थे। उसने अपना दूसरा फ़ोन निकाला जिसमे जिओ इंटरनेट काम कर रहा था। उसने तुरंत व्हाट्सएप पर मेसेज किया, ‘मेडम कहाँ हो आप, मैं पहुँच चुका हूँ।”, “मैं पिछले २० मिनट से तुम्हारा इंतज़ार कर रही हूँ।”, “मैं यहाँ नीचे गेट नंबर २ के पास खड़ा हूँ।” रौशनी वक्त की खाफी पाबन्द थी। पिता के सेना में होने का असर तो उसमे आना ही था। उसे इंतज़ार करना पसंद नहीं था। आते उसने ही एक सवाल मानव पर दाग दिया गया, “तुम्हें कॉल करना चाहिए था, मैं कब से तुम्हारा वेट कर रही हूँ।” मानव ने अपना फोन दिखाते हुए कहा, “यार शान्ति... फोन रेंज में नहीं था।” कारण सही था इसीलिए मानव का कोर्ट मार्शल होने से बच गया। “ओके ठीक है।”, मानव मन ही मन बड़बड़ाया ‘ये तो रौशनी से भवानी हो गई थी।’, “कुछ कहा तुमने”, “नहीं तो।” ये तो मन की बातें भी जान रही है क्या? डर लगता है अब कुछ सोचने को भी। “चलो अब… क्या सोच रहे हो?” रौशनी ने मानव के कंधे पर थपथपाते हुए कहा। मानव ने भी इशारे से हाथ आगे किया और दोनों चल पड़े।
“कितनी दूर है यहाँ से लोटस टेम्पल”, मानव ने सवाल किया। रौशनी ने घड़ी देखते हुए कहा “थोड़ी ही दूर है, लेकिन शायद दौड़ लगानी होगी, क्योंकि शायद पाँच बजे बंद हो जाता है।”, “चलो अब दौड़ो”, रौशनी ने मानव की तरफ़ घूरकर देखा, मानव ने अट्टहास करते हुए कहा, “अब क्या चाहती हो कि तुम्हें गॉड में उठाकर ले जाऊँ, ना बाबा ८० - ९० किलो तो कहीं नहीं गए।” इतना कहकर मानव आगे भाग, “यु… आई विल किल यु मानव के बच्चे”, रौशनी भी उसके पीछे भाग पड़ी, “अरे मेरी तो शादी भी नहीं हुई, बच्चे कहाँ से होंगे।” इसी तरह मज़ाक करते हुए दोनों पाँच बजने के कुछ मिनट पहले गेट से अंदर दाखिल हुए।
पूरी भीड़ बाहर आ रही थी और ये दोनों मंदिर की तरफ़ दौड़ पड़े थे। लोटस टेम्पल, बहाई लोगों का पूजाघर है जो हर धर्म और भाषा के लोगों का स्वागत करता है। यह पूजा स्थल कमल के आकर का होने के कारण इसे “लोटस” (कमल) नाम मिला जो लगभग ४० मीटर ऊँची पत्थरों की २७ पंखुड़ियों से बना था। अपने आप में अद्भुत इस इमारत का आकर्षण ही कुछ ऐसा है कि इसे विश्व में सबसे ज़्यादा दर्शित इमारत का खिताब मिल चुका है। बहाई लोग विश्व शान्ति की कामना करते है और यह कमलनुमा बेहतरीन इमारत उसी बात का प्रतीक है। हाँलाकि लोग यहाँ सिर्फ फोटो ही खिंचवाने आए थे, ऐसा मानव को लग रहा था।
“तुम यहाँ कितनी बार आ चुकी हो?”, रौशनी ने सिर हिलाकर ना में जवाब दिया। “क्या!”, ये मानव का प्रश्न नहीं अचरज था “मैं दिल्ली के इस इलाके में आती जाती नहीं, और ऐसा मौका कभी आया नहीं इसीलिए यहाँ नहीं आई।” लोटस टेम्पल के स्वयंसेवक सभी को संबोधित करते हुए निर्देश दे रहे थे, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण उस पूजाघर के अंदर शान्ति बनाए रखना था, जो शायद पर्यटकों के लिए सबसे ज़्यादा चुनौतीपूर्ण प्रतीत हो रहा था। अंदर घुसने से पहले मानव ने कहा, “तुम बहुत चालाक हो, मेरे बारे में सब जान लिया, खुद के बारे में कुछ बताया नहीं।” रौशनी ने भी हँसते हुए कहा, “तुमने कभी पूछा नहीं?”, “अच्छा जी”, रौशनी ने मानव के होठों पर ऊँगली रखते हुए कहा, “शशशश…”, अपनी आवाज़ को दबाकर वह बोला, “बाहर निकलो देख लूँगा।” रौशनी ने भी अपनी हँसी दबाई और हँसने लगी।
अंदर का वातावरण सचमुच मन भावन था। एक अजब सी शान्ति थी वहाँ। बड़े ही करीने से एक-एक चीज़ को बनाया गया था। संग-ए-मरमर का फर्श, बड़ा सा हॉल, २५०० लोगों के बैठने के लिए लगी बेंच, अंदर की तरफ़ बनी ऊँची कमल की पंखुड़ियों से बनी छत। शांतता इतनी कि एक कील भी अगर गिरे तो आवाज़ हो। ऐसा लगे जैसे पहाड़ों के बीच ठहरी हुई झील। फिर भी कुछ लोगों के भिनभिनाने की आवाज़ तो लाज़मी था। मानव और रौशनी दोनों आस-पास बैठ गए। अंदर बात करना मना था तो मानव आँखें बंद करके बैठ गया।
पलकें बंद होते ही आँखों के सामने काला पर्दा और उस पर कुछ धुँधली तस्वीरें आती गई और जाती गई। उसका शरीर ढीला पड़ने लगा और मन भी एकदम स्थिर हो गया जैसे कोई भी ना हो इस पूरे जग में। उसे अब सिर्फ एक ही आवाज़ सुनाई दे रही थी, उसे दिल के धड़कने की आवाज़, ‘धक्-धक्, धक्-धक्’, ऐसा उसने पहले कभी महसूस नहीं किया था। धड़कने और धीमीं, और धीमीं होती जा रही थी। वो सबकुछ अपने भीतर देख पा रहा था कि क्या हो रहा है। अचानक उसकी साँस दो धड़कनों के बीच रुक गई, सबकुछ शून्य और निर्वात हो गया। एक ज़ोर का प्रकाश उसके सामने आया और वह सीधे पहुँच गया, निज़ामुद्दीन स्टेशन। उस स्टेशन पर कोई नहीं था, सिवाय गोल्डन टेम्पल ट्रेन के। जो ठहरी हुई थी। मानव अपने हाथ में बैग लिए हुए थे। दूर से कोई बूढ़ा बाबा चलता हुआ आ रहा था, यह वही हरे कपड़े वाला था जो हकीकत में मिला था। वह मुस्कुराते हुए मानव से बोला, ‘बाबा के दर आना मेरे बाबा के दर।’ पीछे से कोई उसे आवाज़ दे रहा था, ‘मानव, मानव…’, उस बूढ़े बाबा ने एक चिट्ठी दी। मानव ने वह चिट्ठी खोल कर देखी। उस पर लिखा था, ‘निज़ामुद्दीन औलिया।’ पीछे से किसी ने उसके कंधे को अपने नाज़ुक हाथों से छुआ। एक झटके उसकी साँस में साँस आई और आँखें खुल गई।
“आर यु ओके?”, रौशनी ज़रा परेशान हो गई थी। “हाँ, मैं ठीक हूँ”, “ये क्या कर रहे थे तुम?”, “क्या किया मैंने?”, “तुम ऐसे प्रार्थना करते हो क्या? ऐसा लग रहा था जैसे गए….” मानव के लिए ये एक नया अनुभव था उसे भी कुछ नहीं पता कि क्या हुआ, “क्या मतलब तुम्हारा गए?” दोनों धीमीं आवाज़ में बात कर रहे थे कि एक बहाई स्वयंसेवक ने दोनों से नम्रतापूर्वक बाहर जाने का निवेदन किया। मानव ने आसपास नज़र घुमाकर देखी तो वहाँ उन दोनों के सिवा कोई नहीं था। दोनों ने उस स्वयंसेवक के हाथ जोड़े और एक मंद हँसी का अभिवादन कर बाहर आ गए।
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