Maqabare ka Ranj - hindi stories - rahulrahi.com |
“हेल्लो, गुड मॉर्निंग”, फोन की घंटी बजी और फोन था मानव का। रौशनी ने जम्हाई लेते हुए कहा, “गुड मॉर्निंग”, “जागो मोहन प्यारे, चलना नहीं है क्या आज।”, अभी भी कुछ नींद में बड़बड़ाती हुई वो बोली,चलना “चलना है ना, अभी तो बस ११ बजे हैं।”, “ मेडम आधा दिन चला गया और आप कह रही हो बस! ११…”, मानव की पूरी बात खत्म होने से पहले ही रौशनी बीच में बोल पड़ी, “पूरी रात रिश्तेदारों की पार्टी चलती रही, मैं सुबह घर आई।” मानव असमंजस में पड़ गया, कि अब करे तो करे क्या, फिर भी उसने अपने दिल की सुनी, वो रौशनी को परेशान नहीं करना चाहता था, “सो जाओ सो जाओ, टेक रेस्ट, सॉरी मुझे पता नहीं था। मैं दिल्ली घूम लूँगा गूगल की बदौलत।”, “नहीं, नहीं, सॉरी की ज़रूरत नहीं मैं आ रही हूँ। बस एक फेवर चाहिए।”, “हाँ बोलो…”, फिर जम्हाई लेते हुए उसने कहा, “हम २ बजे की जगह ४ बजे मिलेंगे।”, “हाँ कोई बात नहीं।”, “ओके, थेंक्यू, गुड नाइट” इतना कहकर रौशनी धड़ाम से बिस्तर पर गिर गई। मानव डिस्कनेक्टेड फोन को देखकर हँसता रहा और फिर कहा, “पागल कहीं की।”
मानव तो वैसे भी सुबह ११ बजे ही घूमने के लिए निकल चुका था। उसने सोचा था कि थोड़ा सा घुमते घामते वो रौशनी से मिल लेगा लेकिन अब और दो घंटे मिल गए। वो शाहदरा से अपने भईया के घर से निकलकर सीधे सफदरजंग का मकबरा देखने पहुँचा। मकबरा देखकर वो जितना खुश हुआ उतना ही दुखी भी। इतिहास की एक बेहतरीन धरोहर जिसे कई शिल्पकारों ने मिलकर बड़ी म्हणत और लगन से बनाया होगा, वहीं उनकी दीवारों पर नए ज़माने के आशिकों की खरोंच के निशान बने थे, ‘बंटी लव अमृता’, ‘प्यार क्या ऐसे परवान चढ़ता है, ऐसे तो बस वो सड़ता है’, यही सोच वो उस मकबरे के चारों तरफ घूमता रहा। आस-पास कई प्रेम के पंछी फड़फड़ा रहे थे। कई लोग उछल कूद कर सेल्फी लिए जा रहे थे। किसी को भी उस नाकाशीदार मकबरे, उसकी दीवारों से कोई दिलचस्पी नहीं थी। भारत के इतिहास पर गर्व और वर्तमान पर कुछ शर्म करता हुआ वो उस मकबरे से बाहर आ गया।
अब भी घड़ी में सिर्फ १-३० ही बजे थे। पास ही में लोधी गार्डन था जहाँ जाकर उसने अपने खाने का डिब्बा खोलने का सोच रखा था। गार्डन बहुत बड़ा था और अक्सर बड़े गार्डन में बैठने की जगह ढूँढ पाना बड़ा ही मुश्किल हो जाता है। एक बड़ा सा पेड़ जिसके आस-पास कोई आ जा रहा नहीं था, उसके नीचे बैठ उसने अपना पिटारा खोला। खाना ख़त्म करते तक उसे अचानक ही तालियों की आवाज़ आई। इतने सारे लोग पता नहीं किस ग्रह से अकस्मात ही आ टपके थे। शायद पेड़ का तना इतना बड़ा था कि उसने अपने शरीर के पीछे सबको समेट लिया था। खाना झटपट खत्म करते ही वह यह देखने के लिए वह उठ खड़ा हुआ कि आखिर माँझरा क्या है? युवाओं की भीड़ लगी थी। कुछ कैमरे लगे हुए थे। एक लड़की घूम घूमकर फोटो खींचे जा रही थी। कई श्रोतागण नीचे बैठे मन्त्र मुग्ध हो सुन रहे थे। कुछ खड़े थे। एक लड़का सभी को संबोधित करते हुए कुछ कह रहा था। जो भी हो पास जाकर देखा तो दो बैनर लगे थे जिसपर लिखा था, ‘गाँव देहात-कविता चौपाल’।
वैसे तो मानव स्वभाव से ज़रा संकोची था लेकिन कविता नाम देखते ही वह सीधे वहाँ जा भिड़ा। “जी क्या मैं भी यहाँ कुछ पेश कर सकता हूँ।”, “हाँ क्यूँ नहीं?” उनमें से एक ने कहा। “आप कहाँ से आए हैं?”, “जी वो पास के बगल वाले पेड़ के पीछे से।”, उनमे से एक लड़की ने हँसते हुए पूछा, “जी क्या?”, मानव ने सब व्यवस्थित करते हुए फिर से कहा, “जी मेरा नाम मानव है, मैं मुम्बई से हूँ, मैं बस यहाँ घूम रहा था और…” मुम्बई के मेहमान को कविता चौपाल में देख देहातियों की ख़ुशी का ठिकाना ना रहा। “जी बिल्कुल, आप भी अपनी रचना पेश कर सकते हैं।” मानव ने बताया कि उसे जल्दी ही निकलना है कालकाजी मेट्रो के लिए तो क्या उसे जल्द ही मौक़ा दिया गया। सूत्र संचालन कर रहे युवा ने मानव को बुलाया और उसे अपनी कविता पेश करने का मौक़ा दिया। अपना परिचय देने के बाद उसने अपनी पंक्तियाँ रखी,
“ज़िंदा है यह मक़बरा,
मृत पड़े लोगों के बीच,
आत्मा उनमें नहीं,
जो साँस बस लेते हैं खींच,
उनसे अच्छी तो यहाँ की,
खुर्दरी दीवारें हैं,
शांत है खरोंच खाकर,
भी नहीं खाती है खीज,
दिल कहाँ इस दिल्ली में,
क्या यह युवाओं का काम है,
मकबरे बनीं तख्तियाँ,
गुदवाए अपना नाम है,
चूमना सर-ए-आम झूठा,
प्यार ये बवाल है,
शर्मसार दीवारें क्यूँ हो,
ये मेरा सवाल है ?
पंक्तियाँ समाप्त हो चुकी थी लेकिन तालियाँ नहीं बजी। मानव ने पास में घाँस पर पड़ा अपना बस्ता उठाया और कहा, “जी समाप्त हो गई। इजाज़त दीजिए।” इश्क की कविताओं के गलियारों में अचानक सूखा पड़ गया हो ऐसा कुछ हो गया उस चौपाल में। सच होता ही कुछ ऐसा है। जैसे सभी का कोई भरम टूटा। उन्होंने तालियों से मानव की पंक्तियों को सराहा । फिर इस कविता चौपाल में पधारने का वादा देकर मानव ने लोधी गार्डन को विदाई दी। मानव के जाते ही उस सूत्र संचालन करते हुए युवा ने अपने दोस्त से पूछा, “ये सच में मुम्बई से था या अपनी कविता पेश करने के हमसे झूठ कह गया”, “भैया, भले झूठ के रास्ते आया हो, लेकिन जो भी हो सच कह गया।”, बगल में खड़ी उसकी साथी ने कहा।
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