और काटों का डर,
डूब ना पाओगे,
पाओगे ना उबर,
ना पूरब का साथ,
ना पश्चिम का घर,
बंजारों से ही,
घूमोगे दर दर ।
झूलोगे बीच में,
घड़ी के लंगर से,
कभी गम इधर से,
कभी नाम उधर से,
गलतफहमियों की,
कोई हद न होगी,
अगर एक मुकाम,
पाने की ज़िद ना होगी ।
आवारा रूह को,
ना जन्नत ना दोजख,
पाने सुकूँ और,
भटकेगा कब तक,
चले क्यूँ वहीं,
जहाँ जाती है दुनिया,
जहाँ रहता कर्ता,
और माया की मुनिया ।
हो कुछ तो अलग,
कुछ हो सबसे परे,
जाने हर कहकशा,
एक जगह खड़े,
सारा सब एक हो,
जो भी अन्दर - बाहर,
शून्य सा शांत हो,
लहरों का वो सागर ।
हो गुलाबों से प्यार,
ना हो काँटों का डर,
जो चला लौट के,
पाएगा वो ही घर ।
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