Murderer Metro - क़ातिल मेट्रो - Hindi Poem - Lafzghar

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Thursday, June 1, 2017

Murderer Metro - क़ातिल मेट्रो - Hindi Poem

Qatil Metro - Hindi Poem - rahulrahi.com

जाना चाहते हो तुम तेज़,
तो अपनी राह बनाओगे,
लेकिन अपने मतलब से,
मुझे बाँटते चले जाओगे?

वर्ष लगे हैं मुझको अपने,
अस्तित्व को सच बनाने में,
तुमने ज़रा भी सोचा नहीं,
मेरा लहू बहाने में?

मैं दो राहों के बीच में,
तुम्हारे लिए ही खड़ा था,
जीवन देने को तुमको,
साँसें सींच रहा था।


मुझे क्या पता स्वार्थ तुम्हारा,
जड़ से मुझे उखाड़ेगा,
मानवता की खातिर जीना,
जीवन मेरा लताड़ेगा।

मेरा क्या मेरे रूप अनेक,
मैं ज़िंदा हूँ बागों में,
जंगल, दूर इलाकों में,
कोरे साफ पहाड़ों में।

लेकिन सोच ऐ मानव थोड़ा,
जो तू मुझे मिटाएगा,
फेंफड़ों में भरने वाली,
हवा वो कौन बनाएगा?

तू खुद और तेरे अपने वाहन,
ज़हर सदा उगलते हैं,
जिनको हम सब पेड़ मिलकर,
प्राणवायु में बदलते हैं।

तेरे कारण जाने कितने,
जीव ही मारे जाएँगे,
आनेवाली पीढ़ी को क्या,
यही वहशत सिखाएँगे।

माना मेट्रो तेज़ है जाती,
समय तेरा बच जाएगा,
लेकिन पेड़ ना होंगे तो,
ऑक्सीजन कौन बनाएगा?

समय बचाना सीख लिया,
जीवन भी बचाए जा,
जितने काटता है उससे,
दुगने पेड़ लगाए जा।

मेरा ख़ून माफ़ हो जाएगा,
जो ख़ुद का जीव बचाएगा।

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